भारतीय संस्कृति और सामाजिक समरसता

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Feb 12, 2023
धर्म संस्कृति
भारत की संस्कृति हजारों वर्षों में उत्क्रमित विकास द्वारा स्थापित है। यह अनेक संस्कृतियों को अपने में समाहित करके एक सागर के भांति अवस्थित है। संस्कृति का तात्पर्य रहन सहन भाषा आचार विचार संस्कार आदि से है। भारत की संस्कृति मे प्राचीन काल से ही अनेक विद्वान मनीषियों दार्शनिकों ज्ञानियो आदि के तर्क एवं ज्ञान का मार्गदर्शन मिलता रहा है ।और जब किसी भी समाज में उसके दिशा निर्माण की बागडोर ज्ञानी लोगों के हाथों में होती है तो वह समाज एक बौद्धिक तार्किक सांस्कृतिक पर्यावरण का निर्माण कर लेता है ।कुछ ऐसा ही भारतीय संस्कृति के संदर्भ में है ,यहां अनेकानेक दार्शनिक विद्वानों ने अपने अपने मतों का प्रतिपादन किया और वह तमाम मत अपने दृष्टिकोण से भारतीय संस्कृति का संपूर्णता में विकास किया है। इस संदर्भ में हम सामाजिक समरसत को भारतीय संस्कृति के एक आवश्यक घटक के रूप में समाहित पाते हैं ।सामाजिक समरसता का तात्पर्य है कि समाज में अनेकानेक विचार लक्षण एवं जीवन जीने की पद्धति होने के बावजूद भी भारतीय समाज में सामाजिक रुप से एकताबद्ध एवं एक सूत्र में पिरोया हुआ महसूस होता है । जिसे हम विविधता में एकता के आशय के रूप में समझते हैं यहां एकरूपता का अभाव है क्योंकि एकरूपता सत्ता द्वारा या किसी शक्ति द्वारा ऊपर से थोपा गया और पोषित होता है परंतु समरसता प्राकृतिक रूप से विकसित होता है जिसमें सभी मत, विचार, लक्षण ,भाषा खानपान वाले समूह एक साथ सौहार्द के साथ जीते हैं भारत में प्राचीन काल से ही एकरूपता के बजाय समरूपता का निवास रहा है । अब यहां महत्वपूर्ण है की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा भारतीय समाज एवं संस्कृति के एक महत्वपूर्ण अवयव सामाजिक समरसता को जो अभी तक एक लक्षण और चरित्र के रूप में था ,उसे अपने वैचारिक अधिष्ठान एवं दीर्घकालीन लक्ष्य के रूप में एक महत्वपूर्ण तथ्य के रूप में स्वीकार किया गया। सामाजिक समरसता का आधार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नजर में भारतीय संस्कृति के बहुआयामी स्वरूप में ही निहित है अगर हम देखें तो जहां भारतीय परंपरा में निरीश वरवादी विचारकों ने ईश्वर एवं आत्मा को अस्वीकार किया है वही सांख्य जैसे दर्शन ने प्रकृति को ही ईश्वर माना है वही हम वेदांत के रूप में निर्गुण एवं शगुन ब्रह्म को ईश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है वही चर्वाक में केवल और केवल लौकिक ता और भोग को अपनी परंपरा का आधार माना अर्थात इतनी वैचारिक भिन्नता ओं के बावजूद भी इन सभी दर्शन एवं परंपराओं को मिलाकर ही भारतीय दर्शन का निर्माण होता है तात्पर्य है भारतीय दर्शन एवं भारतीय परंपरा विविधता को प्रमुखता से स्वीकार करती है इसे भारतीय परंपरा एवं भारतीय समाज में अनेक धर्म अनेक भाषा अनेक क्षेत्र अनेक वैचारिक अधिष्ठान को मानने वाले समूह के सहजीवन के बावजूद भारतीय समाज निरंतर ही विकसित होती प्रतीत होती है ऐसे में सामाजिक समरसता को वैचारिक चर्चा का केंद्र बिंदु बनाने की आवश्यकता क्यों पड़ी ।ज्ञात है की आधुनिक भारत में उत्तर मुगल और औपनिवेशिक शासन ने भारतीय समाज में समरसता को खत्म करके विभेद को आरोपित करके भारतीय समाज को बांटकर अपने साम्राज्य को चलाने का एक यंत्र और साधन माना इसी क्रम में राजनीतिक एवं सत्ता का लाभ लेने के लिए भारतीय समाज एवं संस्कृति को धार्मिक ,जातिगत ,वर्णगत, भाषा, क्षेत्रीय, आदि तमाम प्रकार के विभेद द्वारा समाज एवं संस्कृति का बटवारा करने का प्रयास किया जाने लगा ऐसे ही समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसी विभाजक विचार को भारतीय समाज के पतन का एवं बार-बार पराधीन होने का महत्वपूर्ण कारण माना जब लोग बट जाते हैं तो वह अंततः पराधीन होना उनका भाग्य बन जाता है। ऐसा ही भारतीय समाज के साथ होता रहा है ।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसी सामाजिक समरसता की संकल्पना को भारतीय संस्कृति एवं समाज के कमजोरी का उपचार के रूप में स्वीकार किया। समरसता का मतलब एक एकरूपता नहीं होता। समरसता का मतलब हर एक रस को उतना ही भाव एवं सम्मान तथा स्वीकार्यता प्राप्त हो अर्थात भिन्न-भिन्न विचारों का पृथक समूहों के द्वारा सम्मान और आदर दिया जा सके जिस समाज में ऐसी व्यवस्था होती है वहां विभिन्नता के बावजूद विभेद नहीं पनपता और समरसता ही जीवन का आधार बनता है। इसी विचार को आगे बढ़ाने के लिए तथा इस उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनेक प्रकल्प भारतीय समाज में सामाजिक रूप से कार्यरत हैं ।एक स्वस्थ्य,स्वच्छ ,समृद्ध, विकसित भारतीय समाज एवं प्रत्येक भारतीय हो सके ऐसी ही विचारधारा सामाजिक समरसता का आधार है, और समरसता भारतीय संस्कृति की आत्मा है

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